श्रीमद्भागवतम् का एक श्लोक पाँच सदी पूर्व हुए श्रीकृष्ण के इस विशेष अवतार के गुणों को उजागर करता है।
– गौरांग दर्शन दास
भगवान् श्रीकृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं कि वे तीन कारणों से प्रत्येक युग में अवतरित होते हैं – साधुजनों की रक्षा हेतु, दुष्टों को संहार करने हेतु तथा धर्म की स्थापना करने हेतु। कलियुग में श्रीकृष्ण ने 1486 ई. में श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतार लिया। इस अवतार में वे एक भक्त बनकर आये और हमें सिखाया कि किस प्रकार उनकी भक्ति की जाये।
एक भक्त के भाव में वे सदैव श्रीकृष्ण के पवित्र नामों का कीर्तन करते और इस प्रकार उन्होंने संकीर्तन की पद्धति द्वारा युगधर्म का प्रचार किया।
ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोहं
तीर्थास्पदं शिव विरञ्चिनूतं शरण्यम्।
भृत्यार्तिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं
वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम्॥
श्रीमद्भागवतम् (11.5.33) का यह श्लोक वर्णन करता है कि किस प्रकार महापुरुष श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणकमल (चरणारविन्दम्) नौ प्रकार से महान् हैं –
- ध्येयं सदा – सदैव ध्यान की वस्तु हैं
- परिभवघ्नम् – भौतिक जीवन की लज्जा को नष्ट करते हैं
- अभीष्टदोहम् – आत्मा की अभीष्ट पूर्ति करती हैं
- तीर्थास्पदम् – तीर्थस्थलों एवं साधुजनों के आश्रय हैं
- शिवविरञ्चिनूतम् – शिवजी एवं ब्रह्मा द्वारा पूजित
- शरण्यम् – शरण लेने योग्य
- भृत्यार्तिहम् – भक्तों के दु:ख हरते हैं
- प्रणतपाल – प्रणाम करने वालों की रक्षा करते हैं
- भवाब्धिपोतम् – भवसागर को पार कराने वाली नौका के समान हैं
- सदैव ध्यान की वस्तु हैं
- (ध्येयं सदा)
सदा ध्येयम् अर्थात् “ऐसी वस्तु जिसपर सदा ध्यान किया जाये।” श्रीभगवान् के दिव्य नाम, रूप, गुण तथा लीलाएँ प्रत्येक व्यक्ति के ध्यान की एकमात्र योग्य वस्तु हैं। और यह ध्यान निरन्तर (सदा) होना चाहिए। वैदिक अनुष्ठानों आदि के अनेक नियम होते हैं, किन्तु श्रीभगवान् के नाम, रूप इत्यादि पर ध्यान के लिए कोई नियम नहीं हैं। हम भगवान् के चरणकमलों से यह ध्यान आरम्भ कर सकते हैं। कमल सौन्दर्य एवं पवित्रता का प्रतीक है, क्योंकि कीचड़ में रहकर भी वह उससे अछूता रहता है। शास्त्रों में बार-बार कहा गया है कि हमें अपनी चेतना को शुद्ध करने के लिए सदैव भगवान् के चरणकमलों पर ध्यान करना चाहिए। ध्रुव महाराज कहते हैं कि भगवान् के चरणकमलों पर ध्यान (तव पाद पद्म ध्यानात्) तथा भगवद्भक्तों के संग में हरिकथा (भवत्जन कथा श्रवण) सुनने से सुख प्राप्त किया जा सकता है। (भागवतम् 4.9.10) भगवान् के चरणनखों से प्रस्फुटित होने वाली चन्द्रकान्ति हमारे हृदयों में व्याप्त अंधकार के गहरे बादलों को छितरा देती है (भागवतम् 3.28.31)। कलियुग में हरिनाम अथवा हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन एवं जप ही ध्यान की प्रामाणित पद्धति है और श्रीचैतन्य महाप्रभु ने मुक्त रूप से सर्वत्र इसका प्रचार-प्रसार किया।
- भौतिक जीवन की लज्जा को नष्ट करते हैं (परिभवघ्नम्)
परिभव अर्थात् “भौतिक जीवन में मिलने वाली लज्जा”, और घ्नम् का अर्थ है “नष्ट करना।” सदैव आनन्द में मग्न रहने वाली आत्मा को इस भौतिक संसार के बंधनों में अनावश्यक दु:ख भोगना पड़ रहा है, भला आत्मा के लिए इससे बड़ी लज्जा और क्या होगी? श्रीचैतन्य महाप्रभु के पावन चरणकमल इस लज्जा को नष्ट करते हैं।
कलियुग में लोग दूसरों के ऐश्वर्य तथा समृद्धि को सहन नहीं कर पाते और छोटी-छोटी बातों पर परिवारवालों में कलह होती रहती है। परस्पर राष्ट्रों के बीच होने वाली कलह एवं युद्धों की बात ही छोड़ दीजिए। इन सभी समस्यायों का मूल कारण है कि हम स्वयं को यह भौतिक शरीर और मन मान बैठे हैं। इस गलत पहचान के कारण हम सोचते हैं कि क्षणिक इन्द्रियभोग हमें सुख दे सकता है। किन्तु यह इन्द्रियभोग अन्तत: पीड़ा तथा पराजय का कारण बनता है। इनके अतिरिक्त इस संसार में हम अत्यधिक गर्मी, सर्दी, अकाल, बाढ़ इत्यादि
श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों का आश्रय लेकर व्यक्ति इन सभी यातनाओं के अतिरिक्त आधिभौतिक क्लेशों (अन्य जीवों द्वारा दिये जाने वाले कष्ट), आध्यात्मिक क्लेशों (मन एवं शरीर के कष्ट) और आधिदैविक क्लेशों (प्राकृतिक विपदाओं) से मुक्त हो जाता है। इस संसार में यह बन्धन हमें शारीरिक चेतना तथा उससे उत्पन्न होने वाली आसक्ति से बाँधकर रखता है और महाप्रभु के चरणकमलों का आश्रय लेकर वह गाँठ ढीली पड़ जाती है। तब हमें इस संसार लज्जित नहीं होना पड़ता और हम आध्यात्मिक आनन्द प्राप्त करते हैं।
- आत्मा की अभीष्ट पूर्ति करती हैं (अभीष्टदोहम्)
अभीष्ट का अर्थ है “इच्छा” और दोहम् का अर्थ है “पूरा करना”। इस संसार में जीवात्मा का मन असंख्य सांसारिक इच्छाओं से भरा रहता है। किन्तु अपने शुद्ध रूप में जीवात्मा केवल श्रीकृष्ण से प्रेम एवं उनकी सेवा करना चाहती है। कृष्णप्रेम प्रत्येक जीवात्मा की गहनतम इच्छा है। जिस प्रकार शक्कर स्वाभाविक रूप से मीठी होती है, उसी प्रकार जीवात्मा का स्वभाव श्रीकृष्ण से प्रेम एवं उनकी सेवा करना है। इसके अतिरिक्त आत्मा का अन्य कोई भी भाव अथवा कार्य अस्थाई होता है और आत्मा के शुद्ध कृष्णप्रेम में बाधा बनता है। श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की कृपा से जीवात्मा अपने सुसुप्त कृष्णप्रेम को जागृत करता है। श्रीचैतन्य महाप्रभु पात्र-अपात्र का विचार किये बिना सर्वाधिक पतित जीवों को भी कृष्णप्रेम प्रदान करते हैं। इसलिए उन्हें कृष्णप्रेम प्रदायते कहा जाता है। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखते हैं –
चिराददत्तं निजगुप्त वित्तं
स्वप्रेम नानामृतमत्युदार:।
आपामरं यो विततार गौर:
कृष्णो जनेभ्यस्तमहं प्रपद्ये॥
“परम उदार श्रीगौरकृष्ण (श्रीचैतन्य महाप्रभु ) ने सर्वाधिक अधम लोगों के लिए भी अपने गुप्त खजाने के द्वार खोल दिये हैं। और वह खजाना है हरिनाम तथा स्वयं उनके प्रेम का अमृत। इससे पहले कभी लोगों में इसका वितरण नहीं हुआ है। अत: मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।” (चैतन्य चरितामृत, मध्य 23.1)
- तीर्थस्थलों तथा संतों के आश्रय (तीर्थास्पदम्)
तीर्थ का अर्थ है “पवित्र स्थल अथवा संत व्यक्ति, ” और आस्पदम् का अर्थ है “धाम अथवा आश्रय।” श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणकमल समस्त पवित्र स्थलों एवं संत भक्तों के आश्रय हैं। श्रीभगवान् के चरणकमलों से पावनी गंगा का उद्गम हुआ और इसलिए भगवान् को तीर्थपाद भी कहा जाता है। लोग पापफलों से मुक्त होने के लिए किसी तीर्थस्थल अथवा नदी पर जाते हैं। किन्तु जब भगवान् का आश्रय लेने वाले शुद्ध भक्त उन तीर्थस्थलों की यात्रा करते हैं, तो वे तीर्थस्थल लोगों द्वारा वहाँ छोड़े गये पापों से मुक्त हो जाते हैं।
विश्व के विभिन्न भागों में रहने वाले भक्तों के लिए वृन्दावन तथा मायापुर जैसे तीर्थस्थलों की यात्रा करना कठिन है, किन्तु श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की आराधना करके वे समस्त पवित्रस्थलों की यात्रा एवं नदियों में स्नान का लाभ प्राप्त कर सकते हैं। अत: श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों का आश्रय लेने वाले व्यक्ति को कलियुग में वस्तुओं, स्थान तथा क्रियाओं द्वारा उत्पन्न दोषों की चिन्ता नहीं करनी चाहिए।
- शिवजी एवं ब्रह्माजी द्वारा वन्दनीय (शिव-विरञ्चि-नूतम्)
विरञ्चि अर्थात् ब्रह्मा और नूतम् अर्थात् “वन्दना करना।” शिवजी तथा ब्रह्मा जैसे सृष्टि के महान् देवता भी श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों की वन्दना एवं पूजा करते हैं। जब कलियुग में भगवान् श्रीकृष्ण श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए, उस समय शिवजी अद्वैताचार्य के रूप में तथा ब्रह्माजी हरिदास ठाकुर के रूप में प्रकट हुए थे। उन दोनों ने श्रीकृष्ण से याचना की कि वे श्रीचैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित होकर कलियुग के पतित जीवों का उद्धार करें। उनकी प्रार्थनाओं के फलस्वरूप श्रीचैतन्य महाप्रभु अवतरित हुए। इसलिए उन्हें शिव-विरञ्चि-नूतम् कहा जाता है। श्रीभगवान् महानतम देवताओं द्वारा पूजित हैं, श्रीमद्भागवतम् की निम्नलिखित प्रार्थना इस तथ्य को स्थापित करती है।
नता: स्मते नाथ सदाङ्घ्रिपङ्कजं
विरिञ्चवैरिञ्च्य सुरेन्द्रवन्दितम्।
परायणं क्षेममिहेच्छतां परं
न यत्र काल: प्रभवेत पर: प्रभु:॥
“हे भगवन्, आप ब्रह्मा, चतुष्कुमार तथा इन्द्रादि समस्त देवों द्वारा पूजित हैं। जीवन में परम कल्याण की की इच्छा रखने वाले लोगों के लिए आप ही परम आश्रय हैं। आप परमेश्वर हैं और दुर्दम्य काल आपके ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।” (भागवतम् 1.11.6)
- शरण्यम् – शरण लेने योग्य
शरण्यम् का अर्थ है “शरण लेने योग्य।” श्रीकृष्ण के सभी अवतारों में श्रीचैतन्य महाप्रभु सर्वाधिक उदार हैं। उनकी सेवा सबसे सरल है और वे शरण लेने के लिए सर्वाधिक योग्य हैं। यहाँ तककि भगवान् के चरणकमलों का आश्रय लिए बिना शिवजी तथा ब्रह्माजी का आश्रय भी सुरक्षित नहीं है। और वे शरण्यम् इसलिए हैं क्योंकि वे करुणार्णवम् अर्थात् करुणा के सागर हैं।
- भृत्यार्तिहम् – भक्तों के दु:ख हरते हैं
भृत्य अर्थात् “सेवक,”आर्ति अर्थात् “दु:ख,” और हम् अर्थात् “हरण करना।” श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणकमल उनके सेवकों को समस्त दु:खों से मुक्त करते हैं। चूँकि भक्त अपने भक्तों से अतिशय प्रेम करते हैं, वे उन्हें समस्त पीड़ाओं से मुक्त कर देते हैं। एक समय श्रीचैतन्य महाप्रभु ने वासुदेव नामक एक कोढ़ी का कोढ़ दूर करके उसे एक सुन्दर शरीर दिया। श्रीचैतन्य महाप्रभु के महान् विद्वान् भक्त सार्वभौम भट्टाचार्य महाप्रभु की कृपा का गुणगान करते हुए कहते हैं –
सततं जनता-भव-ताप-हरम्
परमार्थ-परायण-लोक-गतिम्।
नव-लेह-करं जगत्-ताप-हरम्
प्रणमामि शचीसुत-गौरवरम्॥
वे सदैव मनुष्यों के त्रितापों को हरते हैं। अपने परम लाभ को समझने वाले लोगों के लिए वे सर्वोच्च लक्ष्य हैं। वे लोगों को मधुमक्खी बनने के लिए प्रेरित करते हैं (जो कृष्णप्रेम रूपी शहद के लिए आतुर रहती है)। वे भौतिक जगत् की दावाग्नि को दूर करते हैं। मैं शचीमाता के पुत्र श्रीगौरांग महाप्रभु को प्रणाम करता हूँ। (शचीसुताष्टकम् 4)
- प्रणतपाल – प्रणाम करने वालों की रक्षा करते हैं
प्रणण अर्थात् “शरण लेना अथवा प्रणाम करना।” पाल का अर्थ है “पालन करना।” श्रीचैतन्य महाप्रभु इतने दयालु हैं कि वे न केवल अपने शरणागत भक्तों की अपितु उन भक्तों की रक्षा भी करते हैं जो निष्कपट भाव से उन्हें प्रणाम करते हैं। भले ही व्यक्ति उनकी सेवा न करे, किन्तु यदि वह केवल सेवा का विचार भी करता है तो श्रीचैतन्य महाप्रभु उसकी रक्षा करते हैं। यदि नवसाधक भी निष्ठापूर्वक उनके आश्रय की इच्छा करते हैं तो महाप्रभु उनका भी सभी प्रकार से संरक्षण करते हैं।
- भवाब्धिपोतम् – भवसागर को पार कराने वाली नौका के समान हैं
भव अर्थात् “बारम्बार जन्म-मृत्यु से भरा भौतिक संसार। अब्धि अर्थात् “सागर” और पोतम् अर्थात् “नौका।” भवाब्धिपोतम् श्रीचैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों को भी कहा जाता है क्योंकि वे इस भौतिक संसार को पार करवाने वाली नौका के समान हैं। देवताओं द्वारा कही गयी निम्नलिखित प्रार्थना इसकी पुष्टि करती है।
त्वययम्बुजाक्षाखिलसत्त्वधाम्नि
समाधिनावेशितचेतसैके।
त्वत्पादपोतेन महत्कृतेन
कुर्वन्ति गोवत्सपदं भवाब्धिम्॥
“हे कमलनयन भगवन्, अखिल जगत् के आश्रय आपके चरणकमलों पर ध्यान करने तथा अज्ञानता के सागर को पार करने के लिए आपके चरणकमल रूपी नौका को स्वीकार करके मनुष्य महान् भक्तों का अनुगमन करता है। इस सरल पद्धति द्वारा व्यक्ति अज्ञानता के सागर को इतनी सरलता से पार कर पाता है मानो वह किसी बछड़े के खुर का चिह्न हो।” (भागवतम् 10.2.30)
श्रील रूप गोस्वामी कहते हैं कि श्रीचैतन्य महाप्रभु का अनुयायी जीवनमुक्त होता है। भक्त को पूरा विश्वास होता है कि भगवान् उसे शीघ्र ही भौतिक जगत् रूपी सागर से पार ले जायेंगे और उसे भक्ति की शक्ति पूरा विश्वास होता है।
इस श्लोक में श्रीचैतन्य महाप्रभु को महापुरुष कहकर सम्बोधित किया गया है। भक्तगण सदैव उनके चरणकमलों का ध्यान करते हैं, क्योंकि यह ध्यान उनके भवबन्धन को काटकर उनकी समस्त आध्यात्मिक इच्छाओं को पूरा करता है।
गौरांग दर्शन दास इस्कॉन गोवर्धन इकोविलेज (ॠएत) में स्थित भक्तिवेदान्त विद्यापीठ के अध्यक्ष हैं। उन्होंने भागवत सुबोधिनी तथा चैतन्य सुबोधिनी सहित अध्ययन पुस्तिकाओं की रचना की है और वे भारत के विभिन्न स्थानों पर भागवतम पाठ्यक्रम की शिक्षा देते हैं।
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